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आपके हिस्से की कविता

आपके हिस्से की कविता, होगी तो ज़रूर कहीं! मुमकिन है घिस गयी होगी आपके जूते के सोल की तरह, जिसने मंज़िले तो बहुत तय की, पर अपने वजूद की कीमत पर! या घुल गयी उस मुस्कुराहट मे जो खिली होगी किसी को दूर जाता देख कर पहली बार साइकल की पेडेल मारते. या बिसरा दी गयी होगी गणित के किसी सवाल मे, ईकाई और दहाई के बीच फँसे हुए हाँसिल की तरह. या फिर गुम गयी होगी उस थरथरती रात की अंधियारी मे , जब रज़ाई से बिना सर बाहर निकले, विदा किया था नाइट शिफ्ट क लिए. या दबी होगी सबसे नीचे किसी सब्जी के थैले मे जिसपर किचन से आवाज़ आई होगी कि जाने किस उम्र मे सीखेंगे ये सब्जी खरीदना. या फिर थमी रह गयी होगी उस कलम की निब पर जिसकी स्याही निपट गयी हो, माँ महबूब और मिट्टी पे लिखते लिखते. या फँसा हुआ हो, कहीं भीतर उन्ही चट्टानी परतों के बीच जहाँ आपके जीवन भर का संघर्ष, बरसों में दबे दबे अब  हौसला बन गया है! कहीं तो ज़रूर होगी, पापा, आपके हिस्से की कविता. जो लाख पुकारे जाने पर भी आवाज़ नही देती , सामने नही आती,

दुआ

एक अजनबी शहर की किसी वीरान स्टेशन पर, बड़े विशाल छत के नीचे बैठा, एक सूक्ष्म इंसान, जो उस अंजानेपन को मिटने में लगा हो, जिसे आती जाती निगाहों ने, खीच दी है उसकी ललाट पर। और इतने मे, कोई धीरे धीरे आकर लग जाता है प्लेटफार्म पे बिना शोर किये, और पल भर में, आती हुई किसी हॉर्न की आवाज पर साइड दे देता है  आने वाली  local ट्रेन को, ट्रेन क दरवाजे की धक्का मुक्की में, वो सूक्ष्म होने वाला एहसास कहीं प्लेटफार्म पर ही दौड़ता रह जाता है , ट्रेन की गेट पर पर खड़े, अजीब चेहरों की परछाइयों मे हाथ बटुआ टटोल लेता है और ठंडी हवा जिस्म, और इमारतों की खिड़कियों से घूरती रौशनी के दरम्यान, अगले स्टेशन पर, पड़ोस में खड़ा सुकून उतर जाता है कंधे पर धक्का देकर, earphone पर पीकू वाला 'बेजबान' गाना रात की तरह ढलता चला जाता है| पर वो अभी भी साथ है। पर वो है कौन? जिस्म ? तो आखे क्यों नहीं फारकती उसकी, उसने हाथ क्यों नहीं बढ़ाया अब तक। रूह? होती क्या है वो? न देखी  कभी,न महसूस किया कभी. खुदा? उसकी तरह निराकार तो है, पर मगर मुझे लग