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Showing posts from 2014

१० % एक्सट्रा

ये तुम्हारे साथ भी हुआ होगा, कि जेब टटोली होगी  तुमने पैंट धोने से पहले, और मुरझाया सा इक नोट मिला होगा. शायद भूल गये थे तुम इसे, जेब मे रखकर महीनो पहले. ये  भी कभी हुआ होगा कि राशन दुकान वाले चाचा ने,  पकड़ाई होगी Parle G की पैकेट तुम्हारे नन्हे हाथों मे, तो कुछ बड़ा मालूम पड़ा होगा, शायद बेख़बर होगे तुम "१० % एक्सट्रा" वाले ऑफर से. मुमकिन है के ये  भी हुआ हो, की किसी शाम जो बढ़े होगे  तुम, किसी व्यस्त सिग्नल की तरफ, दिल को दिलासा देते कि बस यही एक एब तो  है इस हसीन शहर में. तुझे देख कर ही, हरी हो गयी हो लाल सिग्नल. पर ये रोज़ रोज़ तो नही  होता होगा, और ना तुम मायूष होते होगे, के आख़िर आज क्यों ना हुआ ये.  जो  इत्ता स्याना है तू, तो बस इत्ता बता दे ए दिल, कि आज जो ज़रा तन्हा है तू, तो इतना परेशा क्यों है? आख़िर समझ क्यों नही पाता , कि १० % एक्सट्रा वाले ऑफर  रोज़ रोज़ नही होते.

आरजू

एक सड़क हो लंबी सीधी सी, और दोनों ओर वीराने हो, कुछ चेहरे हो अंजाने से, और भूले-बिसरे गाने हो. एक शाम हो कुछ ऐसी लंबी , के ना तिमिर थके , ना मिहिर थके, एक ऐसे सफ़र की आरजू है हमें !! कुछ दूर चलूं तो दूर कहीं, एक झोपड़ हो सूना सूना, छत से लटकी हो लालटेन, खामोश सा हो कोना कोना, ना पास हो कुछ बेशक़ लेकिन, एक आस रहे , विश्वास रहे. एक ऐसे सफ़र की आरजू है  हमें !! हो भीगी-भीगी सी सड़के , कुछ बूंदे बस संवादी हो, कुछ यादें बासी-बासी हों, खो जाने की आज़ादी हो. कुछ ख्वाहिश हो मद्धम-मद्धम, एक प्यास रहे, आभास रहे. एक ऐसे सफ़र की आरजू है हमें !! एक विहग दिखे ऐसे नभ मे, मानो फिरता मारा-मारा, मेरी तरह पथ भूला सा, मेरी तरह कुछ आवारा!! इतनी शक्ति हो पंखों मे, के ना चाह थामे , ना राह थामे, एक ऐसे सफ़र की आरजू है हमें!!

आम का पेड़

लोग कहते हैं कि, इसे लगाया नही था . यूँ ही फेंक दी थी गुठली, किसी ने चूस कर, और ये पनप आया था. पर मैने इसे हमेशा, बड़ा ही देखा है, बुजुर्ग सा , विशाल से तने वाला, और तने से दुविधा के मानिंद , निकली हुई  दो शाखे. उनमे  एक थी जो, आसमान छूने निकली थी, और उसपर मौसम  रंग बदलते दिखते थे, कोई मौसम उसपर मंज़रों पे, हरा रंग मल जाता था , तो कभी गुच्छों मे  लटके हुए फल दिख जाते थे, प्रदर्शनकारियों से लाल पीले. पर जो दूसरी साख  थी, उसका रुख़ ज़मीन की तरफ था, झुका हुआ था वो ज़रा, जिसपर मंज़र तो आते थे, पर चर लिए जाते थे, या फिर शिकार हो जाते थे, गुज़रने वालों के उतावलेपन का. और यही सवाल था, कि आख़िरकार   एक सी ज़मीन और, एक सी आबो हवा मे, ये कैसा बटवारा है, के किसी के हिस्से हैं तल्खियाँ  तो किसी को नाज़ों से सवाराँ है! खैर वो सवाल वक़्त से साथ, बढ़ता चला गया, वो आम का पेड़ अब बढ़कर , मेरे मुल्क जितना बड़ा हो गया है, और आज भी मैं हैरानी से यही सोचता हूँ , पत्तों की सरकार मे कुछ साखें, यूँ महरूम क्

उसके बचाव में

हाँ, बिल्कुल ज़ायज़ था, तेरा गुस्से मे तकिया फाड़ देना, और बिखेर देना रूई को, आसमान मे चारो तरफ, के आख़िर किस बिनाह पर, तुझे कोसते चलते हैं लोग, के जबकि मैने खुद देखी है, सीधी सटीक वर्गाकार खेतों की मेडे, और सलीके से चुपचाप बहती नदी, स्लो मोशन मे रेंगती मोटर कारे, और सन्नाटे मे डूबा एक पूरा सहर. ना कोलाहल, न कोहराम, ना अल्लाह , ना राम, ना दीवारे, ना दरवाजे, ना जनता, ना महाराजे, ना  शोर, ना संवाद, ना  गम, ना उन्माद. और जबकि मेरा जहाज़ , तो ज़रा सी उँचाई पे रहा होगा, पर तू तो  दूर,  कहीं दूर, बहुत उपर बैठता है ना! 

हासिए पर !

इश्क़ और सियासत मे एक समानता है, वो आपकी समझ-बूझ पर बट्टा लगा देती है   कुछ ऐसे की पता ही नही चलता की इस तरफ या उस तरफ.!  फ़र्क बस इतना है की इश्क़ मे ये अनायास होता है,और सियासत मे अक्सर तैयारी से. ऐसे ही हासिये पे अटके कई सारे हालत आपके समक्ष : मुड़ के देखा था उसने जाते जाते, खैर हम कह भी उनसे क्या पाते, उनकी आँखों मे डबडाबाते  हुए, कुछ सवाल से तो थे, पर सवाल नही.  घरूब-ए-आफताब [ढलता सूरज] देखा था, उनकी उंगलियों के पोरों से, तब से बगिया मे फूल उरहुल के,  थे तनिक लाल से , पर लाल नही. इक दफ़ा  इन्क़िलाब गाया था, सियासतदारों की तंग गलियों मे, थी आरजू की कुछ बदल डालूं, तरीके ज़रा  बवाल से थे, पर बवाल नही. जिनकी जेबें टटोल कर तुमने, रखा था हांसियों, पे सालों  तक, उनकी मुट्ठी मे वोट थे लेकिन, लगते भले कंगाल से थे, पर कंगाल नही. मेरा घर देख कर जो पूछे कभी , शहरवालों !  जो कोई हाल मेरा, उससे कहना कि ना वो फ़िक्र करे, हैं तनिक बेहाल से, पर बेहाल नही!