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Showing posts from April, 2013

मेहरबानी

एक बात बताउ ,शाब! वो उस सड़क को छोड़ कर,  तीसरी गली हैं ना साहब! जो दोनो सिरे से खुलती है, उसमे चंद कदमो पर, एक बड़ी उँची सी इमारत है यादों की. और उसके ठीक सामने एक उंघता सा, एक कमरे का मकान, जिसके आगे एक अकल का कुत्ता बिठा रखा है. जो हांफता रहता है,  घूमता रहता है,  दरवाजे के इर्द गिर्द, और चौकश हो जाता है वो ज़रा सी भी आहट पर, अगली या पिछली गली में. खुद को शेर समझता है, साहब! दरअसल बड़ी हिफ़ाज़त से रखा है कमरे को, कागज के चंद टुकड़ो पे बिखरे, कुछ गीले मोती, और फर्श पर अशरफियों से बिखरे, कुछ  अहम के टुकड़े. कोने मे औंधे मूह पडा एक जोड़ी जूता, जिसपे आज भी किसी खूबसूरत राह ही मिट्टी लगी है, ज्यों की त्यों. और बिस्तर पे करवट लेकर लेटी रहती है, कुछ घंटों की आधी-आधी नींद. और साहब !मेमशाब  खड़ी रहती है, उन खिड़की की सलाखों के पीछे. घंटों तकती हुईं सामने वाली इमारत की छत पर, चहलकदमी सी करती किसी परछाई की ओर. उसे खाँसते सुना है कभी - कभी मैने, और कभी - कभी अकल वाला कुत्ता भी  बस देख लेता है उसे नज़रे उठा कर . मा