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Showing posts from 2013

बेईमान शायर

पहली दो पंक्तियाँ श्रीमान सचिन तेंदुलकर को समर्पित करते हुए... देखा है लड़कपन को मैने ,रफ़्तारों से सौदा करते, [साभार youtube] देखी है आकुलता मैने ,चालिस की आँखों से झरते, देखी है दृढ़ता भावों मे, देखा है पौरुष का तांडव,  देखी है भागीरथ की क्षमता, देखा है अविचलित मानव, पर शीश झुकाए निकल पॅडू,  जब सीधी समतल  राहों पर, तुम मेरे शिथिल इरादों को, हिम्मत का ना वास्ता देना. मैं एक "बेईमान शायर" हूँ, मेरे ख़यालों को ना रास्ता देना. बड़ी पैनी नज़रों से मैने, ढूंढी जीवन की सार्थकता, कुछ  कम मादक सी लगी मुझे ,जाने क्यों  मधु की मादकता, मृग मरीचिका सी लगी मुझे खुशियों की हर एक खोज  प्रिय,  भौतिकतावादी  दलदल मे ,फँसती धँसती सी  सांसारिकता.  किंतु मन मेरा जो उड़ कर, वापिस जा बैठे नोटों पर, मेरी अपसारित चिंतन को , बुद्धा का ना वास्ता देना, मैं एक "बेईमान शायर" हूँ, मेरे ख़यालों को ना रास्ता देना. बड़ा रोचक लगता है मुझको लोगों के जीवन मे तकना, लोगों की पीड़, प्रयत्नो से अपने  अनुभव घट को भरना  , स्याही मे लिपटे अफ़साने पुलकित कर

अठन्नीयाँ

खूँटी पर टॅंगी पिताजी के पैंट की जेब मे, ऐरियाँ उचकाकर, जब भी हाथ सरकाता रहा, नोटों के बीच दुबकी हुई, अठन्नी हाथ आती रही, जैसे आज फिर  आई हो क्लास, बिना होमवर्क किए, और छुप कर जा बैठी हो, कोने वाली सीट पर ! और हर दफ़ा, बहुतेरे इरादे किए, के गोलगप्पे खा आऊंगा चौक पर से या, बानिए की दुकान से, खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया, क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की, बस चुटकी भर देता है, और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है, मैं तो अब स्याना हो गया हूँ. या फिर, ऐसा करता हूँ  के चुप चाप रख लेता हूँ इसे, अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे, के जब भी आनमने ढंग से, पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ, शायद सिहर जाएँगी, इसके शीतल स्पर्श से. पर अभी अभी  वो बर्फ वाला आया था, तपती दुपहरी मे, अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते, और ले गया है वो अठन्नी , उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले, जिसकी बस सीक़  बची है, बर्फ पिघल चुकी है, कुछ ज़बान पर, कुछ हाथो मे, और फिर से अठन्नी हो गयी है, इस जेब से उस जेब, ठीक उम्र की तरह! जाने कितने

मेहरबानी

एक बात बताउ ,शाब! वो उस सड़क को छोड़ कर,  तीसरी गली हैं ना साहब! जो दोनो सिरे से खुलती है, उसमे चंद कदमो पर, एक बड़ी उँची सी इमारत है यादों की. और उसके ठीक सामने एक उंघता सा, एक कमरे का मकान, जिसके आगे एक अकल का कुत्ता बिठा रखा है. जो हांफता रहता है,  घूमता रहता है,  दरवाजे के इर्द गिर्द, और चौकश हो जाता है वो ज़रा सी भी आहट पर, अगली या पिछली गली में. खुद को शेर समझता है, साहब! दरअसल बड़ी हिफ़ाज़त से रखा है कमरे को, कागज के चंद टुकड़ो पे बिखरे, कुछ गीले मोती, और फर्श पर अशरफियों से बिखरे, कुछ  अहम के टुकड़े. कोने मे औंधे मूह पडा एक जोड़ी जूता, जिसपे आज भी किसी खूबसूरत राह ही मिट्टी लगी है, ज्यों की त्यों. और बिस्तर पे करवट लेकर लेटी रहती है, कुछ घंटों की आधी-आधी नींद. और साहब !मेमशाब  खड़ी रहती है, उन खिड़की की सलाखों के पीछे. घंटों तकती हुईं सामने वाली इमारत की छत पर, चहलकदमी सी करती किसी परछाई की ओर. उसे खाँसते सुना है कभी - कभी मैने, और कभी - कभी अकल वाला कुत्ता भी  बस देख लेता है उसे नज़रे उठा कर . मा

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

फरियाद

मैने ये तो कभी नही चाहा , कि  फलक से तोड़ कर , अपनी टेबल पर सज़ा लूँ चाँद, या फिर मेरी घर की किसी दीवार पर, चमगादड़ के मानिंद लटका रहे, कोई इंद्रधनुष ! रात का इंतज़ार भी, बखूबी किए लेता हूँ, टेबल पर सर रखकर उंघते हुए, और ये भी जानता हूँ के कुदरत की Drawing class भी, रोज़-रोज़  नही लगती. बेशक़ , कि हर खूबसूरत चीज़,  हमारी ही हो जाए, ऐसा तो हमने कभी नही माँगा. हाँ!बस ये गुज़ारिश है अपनी, के बित्तो से मापने हैं फ़ासले हमको. उम्मीदों से  कहीं दूर ना निकल जाना ! हालाकी ! सुना है चाँद तो बहरा है, क्या सुनेगा वो फरियाद मेरी ? मैने भी कभी कान नही देखे उसके. और , इंद्रधनुष भी शायद ही पढ़ पाता होगा! अब एक तू ही है  जो  बचा सकती है, इस नज़्म को बेकार  जाने से.