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Showing posts from 2012

बहाना

उस रात बस हवाएँ चली थी, बिना बारिस के, और रह गया था चाँद सूखा सूखा. वक़्त जैसे-तैसे सरक रहा था,  बड़ी मशक्कत से, हौले हौले , केंचुए सा! बड़ी देर तक  देखता रहा मैं, अपने ख़यालों की छत से, बूँद बूँद टपकते अंधेरे, और वो  बेज़ार सा ,बिखरा हुआ मोम जो शायद सह नही पाया था, लौ की तपिश ! और वो बैठी रही बेफ़िक्र.. मेरे सिरहाने, के जैसे कोई जल्दी ना हो, और मालूम हो जिसे के जो छू दिया मुझको तो तब्दील हो जाऊँगा रेत के ढेर में! पर याद है उस रोज़, अभी वक़्त था भोर होने में, आसमान ज़रा साफ हो चला था, और ज्यों ही हाथ बढ़ाया था मैने उसकी ओर, तो एक ख़याल सा टकराया था. की  क्या जवाब दूँगा उसे, जो  जो कभी मिलेगा मुझे, के जिसने ज़िक्र किया था मेरा और मैं आ पहुचा था, और  यकीन था उसे कि बड़ी लंबी उमर है मेरी. उस रोज़ कहा था मैने के,ऐ ख़ुदकुशी! साँस लेना भी अजीब आदत है, जाते जाते ही जाती है. तू आज फिर लौट जा खाली हाथ, जीने का एक बहाना , अभी और बाकी है.

बग़ावत

मैं वो कहाँ लिखता हूँ जो मैं लिखना चाहता हूँ, मैं वो भी नही लिखता जो आप पढ़ना चाहते हैं, हमारे दरम्यान जो बिखरे पड़े हैं, वो तो कुछ लफ्ज़ हैं जो बग़ावत कर बैठे हैं. गर मान लें इनकी तो मेरी रूह का विस्तार,  इनकी उड़ान के लिए शायद छोटा पड़ जाता  है, या शायद मेरे मन के अंधेरों में , बढ़ जाता है इनकी गुमशुदगी का एहसास. इन्हे लगता है कि बरसो से मैने बस कुचला है  इन्हे. कभी वक़्त ने नाम पर, कभी हालात का हवाला देकर ! नादान हैं, नही मालूम इनको गर्दिशे जमाने की, के धूल की परतों तले, गुज़र जाती है ज़िंदगानी भी. अंजान , के कितने महफूज़ थे ये मेरे ख़यालों मे. इन्हे अक्सर लगता था कि मैं कोई तानाशाह हूँ, मेरे लफ्ज़ तू विदा ले,और हिन्दुस्तान देख आ, लोकशाही के हालत भी कुछ  ज़्यादा  अच्छे नहीं है!  P.S. : I  am a firm believer in the idea called democracy and India. The last few  lines are inspired from the current state of affairs in our country . This is how i show my solidarity with Mr. Aseem Trivedi . You are a hero,Sir! I wish the good sense

तीलियाँ

यहीं कहीं रखी थी , वो माचिस की डिबिया, खिड़की से उठा कर, के जाने कब कुछ पथ भ्रष्‍ट बूंदे, इसकी हस्ती के साथ खिलवाड़ कर बैठें. बिल्कुल, इंसानों से जुदा हैं ज़रा, ये बर्बाद होकर नम नही होती, नम होकर बर्बाद हो जाती हैं! बहुत तो नही, पर चंद तीलियाँ रही होंगी, यूँ ही पड़ी होंगी, जल जाने की फिराक़ में, पर अब ये शायद नही होगा, हालाकी किसी को फ़र्क़ भी नही पड़ता, और किसे फ़र्क़ पड़ जाए,  तो हमें फ़र्क़ पड़ता है? हाँ ! कभी कभी लगता है, कि, जो हमारी कोशिशें सही पड़ती, तो रोशन करने वाली इन तीलियों के हिस्से, गुमनामी के अंधेरे नही आते, मुक़्क़मल हो जाती शायद इनकी भी ज़िंदगी. ऐ उपरवाले ! जो गर देख रहा है तू , कही हमें देख कर भी तुझे, ऐसा ही तो नही लगता.

ग़लती

जब सांझ उफक़ की राहों पर, अंधियारी का हाथ पकड़, चल पड़े मगन हौले- हौले, देने दस्तक चंदा के घर, जब सूरज आँखे लाल किए, छुप जाए जाकर दूर कहीं, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. जब कहता मुझको जग भूला, यूँ लगता है पा लिया तुझे, जाने क्यों पल मे पछतावा, फिर कर देता है दूर तुझे, जो कुछ पल बीते थे संग संग, उन लम्हों को दुहराने को, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. शायद ग़लती से कर बैठे, कुछ काम समझ के हम जग में, उनके थे हिस्सेदार कई, बेशक़ तुझपे हक़ मेरा बस, तेरा ना दावेदार कोई, कभी मुझपे हक़ जतलाने को, ऐ "ग़लती" !  कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. "ग़लती" तेरी क्या ग़लती है, थोड़ी ग़लती तो चलती है, मैं कर्ता  हूँ,  तू क्रिया मेरी, मैं प्रीतम हूँ,  तू प्रिया मेरी, कुछ नाम नही इस रिश्ते का, बस रिश्ता है, बतलाने को, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम.

ज़िंदगी झंड

एक भेड़ चाल ज़िंदगी, एक भीड़ मे फँसी हुई, ना  जानता    कोई हमें, ना  हमको  जानना तुम्हे, ना बैर भाव है कोई, ना ही कोई संबंध है, ज़िंदगी ये झंड है, फिर भी बड़ा घमंड है. एक छोटी सी घड़ी मेरी, सोने कहाँ देती कभी, जो Snooze करके हम पड़े, जागा तो बोला..ओह तेरी! फिर सोचा अपना boss भी , कहाँ वक़्त का पाबंद है, ज़िंदगी ये झंड है, फिर भी बड़ा घमंड है. जो जैसे तैसे बस मिली,. हर सिग्नल पे रूकती चली, होता तो हमको गम अगर, जो बस की अगली सीट पर, बैठी ना होती वो कुड़ी, जी आइटम प्रचंड है, ज़िंदगी ये झंड है, फिर भी बड़ा घमंड है. एक इंतज़ार मैं कटी, अपनी तो सारी ज़िंदगी, वो तीस दिन की salary, जो बीस दिन मे ही उड़ी, बचे जो दस हैं और दिन, क्रेडिट-कार्ड का प्रबंध है, ज़िंदगी ये झंड है, फिर भी बड़ा घमंड है. नारी से कुछ तो नाता है, अपनी समझ ना आता है, दिल लेके अपना हाथ मैं, ज्यों ही गये हम पास में, वो क्यों थी चीख सी पड़ी, तू चूतिया अखंड है, ज़िंदगी ये झंड है, फिर भी बड़ा घमंड है. बिल्कुल थी लाखों खावहिशे,

मुनासिब ?

जब भी दिल का कहा सुना हमने , था मुनासिब कहाँ सुना हमने. अजब से शौक पालता है ये दिल, कत्ल भी शौक से किया हमने. इसका किस्मत से दोस्ताना था, अपना दुश्मन तो वो पुराना था, इल्म बिल्कुल था हार जाने का, फिर भी ये दाँव ले लिया हमने. जिनको ताउम्र थे हम ढूंढुते रहे, वो एक दफ़ा जो मिले गये भी तो क्या? इसको तो उनसे भी कुछ शिकायत थी, उनसे भी मुह फुला लिया हमने. भोर आती थी मेरे दरवाजे, बड़ी मायूष लौट जाती थी, शाम हम जागते थे ये कहते, या खुदा! बहुत सो लिया हमने. एक जंग थी मेरी मुझसे, एक को तो हार जाना था, अपना हम और क्या बुरा करते, साहब ! इश्क़ कर लिया हमने. बड़े सारे पड़ाव देख लिए, तजुरबों की है फेहरिस्त बड़ी, अब तो खुद मे समा ले ऐ मौला, है बहुत जी लिया हमने. जब भी दिल का कहा सुना हमने, था मुनासिब कहाँ सुना हमने...