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अंत

अंत कैसा होना चाहिए?  कहानी से बेहतर ,  या कहानी के कहीं आस-पास.  घर मे चावल धोते हुए ,  जो दाने बह जाते हैं पानी के साथ,  वो अलग तो नही होते,बाकी सारी जमात से!  बस अलग हो जाते हैं, शायद..  और क्या पता रहे होंगे अलग? ख़ास?  क्या पता वो सबसे खूबसूरत बालियां रही होंगी खेत में,  क्या पता देख कर उसे सबसे ज़्यादा हरसया होगा किसान.  क्या पता?  क्या पता वो आख़िरी कुछ दाना रहा होगा उस बोरी में,  जिसे भर कर लाया गया हो आपके शहर,  क्या पता आपने हाथों मे परखे हो वही दाने,  और बँधवा लाए हो अपने घर.  और फिर ,फिर क्या हुआ?  ख़तम. झटके में।  ऐसे कैसे? ऐसे नहीं खत्म होती कहानियां! अंत बेमन से स्वीकारने कि आदत नहीं हमें, अंत को तो घुल जाना चाहिए जेहन में। पर ,क्या वाकई अंत तय करती है, कहानी कैसी थी? या कहानियाँ होती है, अंत से परे।  -इरफान साब के लिए
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ख्वाबों वाली मछली

किसी ने देखा होगा ख्वाब समुन्दरो का,आसमानो का, और समुंदर मे तैरते आसमान के अक्स का. समुंडरों ने देखा होगा बर्फ़ाब पहाड़ों का ख्वाब ,  सफेदी सी लिपटी बर्फ की चादरों का,और एक छोटीसी मनचली मछली का. उस मछली ने देखा होगा ,  ज़मीन का ख़्वाब. फिर किसी रेंगते ख्वाब ने कोई झुका हुआ सा ख्वाब,  किसी सीधे खड़े ख्वाब ने  कदमो का ! उस कदम ने अपने  मे साथ चलते हमकदम का ख्वाब देखा होगा  और फिर ... और फिर .. फिर दोनो ने मिलकर कई सारे ख्वाब. ख्वाब जैसे उँचा मकान , पहाड़ के उस पार जाती सड़क. किताबे, बस्तियाँ, शराब, महताब. और फिर, ख्वाबों का एक रेला चल पड़ा होगा, कुछ पहाड़ के इस पार रह गये होंगे, कुछ पहाड़ के उस पार. पर अब धीरे धीरे सब अलग अलग ख्वाब देखने लगे, कुछ दौलत का ख्वाब ,कुछ ताक़त का ख़्वाब. कुछ दर्द का ख्वाब , कुछ राहत का! कोई रोटी का, कोई शराब का, कुछ नीन्द के मारे देखने लग गये ख्वाब ख्वाब का. अब आसमान बादलों के ख्वाब देखने लगा था  और पहाड़ बर्फ की चादरों के,  जंगल पेड़ो के ख्वाब देखने लगे और  कदम वीरानो  के। और वो मछली..

With love from Chandramukhi

वो मिली मुझे आखिरकार, घर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर, एक पहाड़ी की चोटी पर थका बेहाल पड़ा था जब और वो , वैसी ही थी आज भी बाल बिखराये, बेपरवाह। सुकून देती हुई किसी खूबसूरत नज़्म सी।  जिसे  पढ़ लेना काफी नहीं होता, फैलने देना होता है अपने भीतर ।  और इतने में वो आयी और  कहने लगी,  आज फिर लाद कर आए हो ना,  अपनी पीठ पर बस्ते का बोझ  वापिस लौट जाने को अपनी उन्हीं बस्तियों में।  शिकायत नहीं थी,निराशा थी उसके लफ़्ज़ों में।  और इससे पहले कि बोल पाता , हिचकते हुए  वो कह कर चली गई  हां आ सकते हो ,देव बाबू  इस कोठे पे जब दिल करे ,  धुत्त हो जाने  ज़िन्दगी के नशे में,  इन पत्थरों की कहानियां सुनने   झूमने इन पत्तियों के साथ।  जब ठुकरा दे तुम्हे,  तुम्हारी ही बनाई गई दुनिया।  आसमान लपेटी हुई कोई शाम,  तुम्हे हमेशा गले लगा लेगी।

सड़क के उस पार

वो सड़क पार कर रही थी, मैं भी. उसने सड़क का मुआयना किया,मैने भी! वो तेज़ी से आगे बढ़ी, मैं भी. वो सड़क के उस पार थी , मैं भी! 'मेडम' आवाज़ लगाई एक ऑटो वाले ने, वो मुड़ी और मै  भी. उसके बैग से गिरी एक चीज़ कुचलती हुई निकल गयी एक कार. और फिर ,और बड़े तिरस्कार से बड़बड़ाई ओह ! पेन. उसे ज़रा भी अफ़सोस नही था, और मुझे.. था ,बस इसी बात का.' कि था एक जमाना के जब पेन मे रीफिल बदली जाती थी, और एहसास चिट्ठियों मे लिखे जाते थे! लिखावट को तवज़्ज़ो देते थे लोग प्रिंट आउट नही होता था तब. खबरों केलिए कल की अख़बार का इंतज़ार होता था कॉँमेंट्री रेडियो पर भी सुनी जाती थी और सचिन ओपन करने आता था इश्क़ बस फ़िल्मो मे होता था असल ज़िंदगी मे तो  बस  चक्कर. आवारगी भी  खूब होता थी और पिटाई भी होती थी जमकर. तब  फ़िल्मो मे हीरो दौड़ते दौड़ते  बड़े हो जाते थे. और आज़ .. सड़क पार करते-करते मैने खुद को बड़ा होते देखा !

कहानी जैसी कविता

वो अक्सर कहती थी ये तेरी कविताएँ कहानी सी लगती है मुझे. और मैं सोचता हो कह दूँ कि कहानियाँ ही तो  लिखता हूँ कविताओं में मैं. फिर सोचता हूँ की ये क्यों  आख़िर ज़रूरी क्यों हैं कि वो लकीर सी बनी रहे कविता और कहानियों मे. क्यों अच्छा नही लगता जब कविता जीन्स पहन कर निकलती हो, कहानियों की तरह  अपने बालों बिना संवारे, बेपरवाह.. खीखियाती! नाख़ून पे अंडमान निकोबार जैसी  ज़रा सी बची nail-paint लिए के आज मूड नही था  उस नज़ाकत से ब्रश घिसने का. बिना काजल लगाए, बिना वो नक़ाब लगाए, जिसे तमीज़ नाम देते हैं. हाथ आसमान मे  फैला कर  sunset वाली पिक  जो इंस्टाग्राम पे चढ़ाती हो. उन तमाम दायरॉं से बाहर मुझे तो अच्छी लगती है.. हर उपमा से परे, परिभाषाओं से दूर या सुर ताल की बंदिशों से मुक्त बेबाक अच्छी लगती है मुझे,कविता. और हाँ मेरी नज़रों मे कोई कम कविता नही हो वो. और जहाँ तक सवाल है , कहानियों का  वो  पसंद हैं मुझे जिसमे मिठास हो कविताओं  की, और कविताएँ जो अपनी बाहों मे कहानियाँ जकड़े घूमती हैं. खैर तुम भी उसी दुनिया स

अधूरी रहने दो.

मेले से किसी  मुट्ठी मे बंद  लौट आए सिक्के की तरह, या ताश के खेल में आख़िर तक, नाकाम किसी इक्के की तरह, एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो. वहाँ जहाँ बस उड़ाने बात करती है, उस वीरान मकान की तरह, और जिसके कई लफ्ज़ उर्दू से लगते हो, ऐसी किसी ज़बान की तरह. एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो. भरी बरसात मे सूखे रह गये  छत के  उस कोने की तरह, या बरसो चली k बंद घड़ी मे  आख़िर मे बजे पौने की तरह. एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो. एक मासूम कलम से टेढ़ी-मेडी खीची किसी लकीर की तरह, या किसी चबूतरे पे औंधे मुह लेटे उस अधमरे फकीर की तरह एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो. आधे चाँद को सीने से लगाए  उंघते, उस आसमान की तरह ! और हां वो कभी कभी ठीक लिख लेता है, ऐसी किसी पहचान की तरह एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो. वहां जहाँ  तुम और मैं अक्सर बिछड़ जाते है ऐसे किसी जहान की तरह, और उम्मीद की ड्योढ़ी से अब तक झाकते किसी दिल-ए-नादान की तरह एक ख्वाहिश अधूरी रहने दो.

आपके हिस्से की कविता

आपके हिस्से की कविता, होगी तो ज़रूर कहीं! मुमकिन है घिस गयी होगी आपके जूते के सोल की तरह, जिसने मंज़िले तो बहुत तय की, पर अपने वजूद की कीमत पर! या घुल गयी उस मुस्कुराहट मे जो खिली होगी किसी को दूर जाता देख कर पहली बार साइकल की पेडेल मारते. या बिसरा दी गयी होगी गणित के किसी सवाल मे, ईकाई और दहाई के बीच फँसे हुए हाँसिल की तरह. या फिर गुम गयी होगी उस थरथरती रात की अंधियारी मे , जब रज़ाई से बिना सर बाहर निकले, विदा किया था नाइट शिफ्ट क लिए. या दबी होगी सबसे नीचे किसी सब्जी के थैले मे जिसपर किचन से आवाज़ आई होगी कि जाने किस उम्र मे सीखेंगे ये सब्जी खरीदना. या फिर थमी रह गयी होगी उस कलम की निब पर जिसकी स्याही निपट गयी हो, माँ महबूब और मिट्टी पे लिखते लिखते. या फँसा हुआ हो, कहीं भीतर उन्ही चट्टानी परतों के बीच जहाँ आपके जीवन भर का संघर्ष, बरसों में दबे दबे अब  हौसला बन गया है! कहीं तो ज़रूर होगी, पापा, आपके हिस्से की कविता. जो लाख पुकारे जाने पर भी आवाज़ नही देती , सामने नही आती,